मंदिर का इतिहास

।। श्री राधावल्लभो जयति ।।
।। श्री हित हरिवंशचंद्रो जयति ।।

करुणानिधि अरु कृपा निधि, श्री हरिवंश उदार। वृन्दावन रस कहन को, प्रगट धरयौ अवतार।।

।। अनन्त श्री विभूषित गोस्वामी श्री हित हरिवंश चंद्र महाराज ।।

प्रेम रसावतार श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु भारत वर्ष के धर्माचार्यों की चिर प्राचीन परम्परा की एक अनुपम विभूति हैं। उन्होंने श्री राधाकृष्ण भक्ति के क्षेत्र में एक सर्वथा नवीन रस सिद्धान्त एवं उनकी उपासना प्रणाली का प्रवर्तन किया। उन्हें श्री श्यामसुंदर की वंशी का अवतार माना जाता है। उनकी वाणी रचनाओं में वेणुनाद जैसी मधुरता एवं मोहकता है।

श्री हित महाप्रभु के पूर्वज देववन (ज़ि.सहारनपुर उ.प्र) के निवासी थे। उनके पिता श्री व्यास मिश्र गौड़ ब्राहमण थे एवं उस क्षेत्र के प्रख्यात ज्योतिषी थे। उनकी माता का नाम तारा रानी था। तत्कालीन राजा ने श्री व्यास मिश्र को अपना दरबारी ज्योतिषी घोषित किया तथा चार हज़ार की मनसबदारी देकर उन्हें सम्मानित किया था।

श्री हरिवंश जी का प्राकट्य मथुरा के निकट बाद ग्राम में हुआ। जहाँ बृजभूमि की यात्रा करते हुए उनके माता पिता ठहरे हुए थे। इस ग्राम में वैशाख शुक्ल एकादशी ई.स. 1502 (वि.स.1559) में श्री तारा रानी के गर्भ से श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु का प्रादुर्भाव हुआ। बाद ग्राम में ही श्री हित प्रभु का नामकरण संस्कार हुआ। कुछ माह ब्रज के दिव्य लीला स्थलों का दर्शन कर श्री व्यास मिश्र सपरिवार देववन लौट गए।

श्री हरिवंश जी शैशव अवस्था में ही श्री राधा नाम सुनकर आनन्द से किलक उठते थे। उनके बाल्यकाल के अलौकिक घटना प्रसंग हैं जिन्हें देख कर देववन निवासी उनके प्रति गहन निष्ठा रखने लगे। सात वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हुआ। इस अवधि में एक दिन उन्हें नित्य निकुंजेश्वरी श्री राधा से मंत्र दीक्षा प्राप्त हुई। इसके साथ ही एक नवीन गुरुमार्ग का प्रारम्भ हुआ जिसका उल्लेख आगे चलकर स्वयं श्री हरिवंश जी ने अपने एक स्वलिखित पद में किया है। कालान्तर में यह गुरु मार्ग ही अपने वृहद् स्वरूप में श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय कहलाया। श्री राधा चरणों की प्रधानता वाली रसोपासना इस सम्प्रदाय की सर्वथा मौलिक विशेषता है।

अपनी आराध्य श्री राधा के निर्देश से श्री हरिवंश जी ने अपने पिता के बगीचे में स्थित कुआँ में से श्री कृष्ण के एक परम मनोहर द्विभुज विग्रह स्वरूप को प्रगट किया और ठाकुर श्री नवरंगी लाल के नाम से उन्हें नव निर्मित मंदिर में विधिवत् विराजमान किया। श्री ठाकुर जी के वाम पार्श्व में उन्होंने श्री राधा जी की गादी स्थापित की।

देववन निवास काल में श्री हरिवंश जी ने संस्कृत एवं ब्रजभाषा में अपनी वाणी रचना का आरंभ कर दिया था। उनके प्रेम भक्तिमय जीवन सदुपदेश एवं सरस वाणी रचनाओं से आकृष्ट होकर अनेक प्रेमपिपासु जन उनके अनुयायी हो गये। इस प्रकार श्री राधा चरण प्रधान नित्य निकुंजोपसना का प्रचार प्रसार होने लगा।

यथा समय श्री रुक्मणी नामक सुलक्षण कन्या के साथ श्री हरिवंश जी का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ। ठाकुर श्री नवरंगी लाल जी की सेवा एवं भक्ति प्रचार में ही श्री हित जी का समय व्यतीत होता था। इस बीच व्यास मिश्र जी का परलोक गमन हो गया। पृथ्वीपति ने श्री हरिवंश जी को पिता का स्थान देना चाहा किन्तु उन्होंने इस संसारिक प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं किया क्योंकि उनका आविर्भाव तो नित्यबिहार उपासना को प्रगट करने के लिये हुए था।

देववन में श्री हरिवंश जी के तीन पुत्र एवं एक पुत्री हुई। पुत्रों के नाम क्रमशः श्री वनचंद्र, श्री कृष्णचन्द्र एवं श्री गोपीनाथ तथा कन्या का नाम साहिबदे था। श्री हित जी ने यथा समय चारों का विवाह कर दिया। बत्तीस वर्ष की आयु में श्री हरिवंश जी को स्वामिनी श्री राधा से वृन्दावन वास एवं रसोपासना के प्रचार की आज्ञा प्राप्त हुई। आज्ञा मिलते ही वे अविलम्ब श्री वृन्दावन के लिए अकेले ही चल पड़े। पद यात्रा करते हुए वे देववन से कुछ मील दूर चिड़थावल नामक ग्राम में आये और संध्या काल हो जाने से वहीं रुक गए। रात्रि में उन्हें श्री राधा जी से पुनः एक आज्ञा प्राप्त हुई जिसका उल्लेख श्री हरिवंश महाप्रभु का सर्व प्रथम चरित्र लिखने वाले उत्तमदास जी ने इस प्रकार किया है।

चिड़थावल में द्विभुज सम्पन्न, प्रेम भक्ति जुत माह अनन्य।

द्वै कन्या सो तुमको दै है , अपनो भाग्य मानी वह लै है।। तिनको पाणिग्रहण जु कीजौ, भक्ति सहायक ही मानि लिजौ। तिहि ठां और एक मम रूप, द्विज लै मिलि है परम अनूप।। ताकौ लै वृन्दावन जैहौ, सेवन करि सबकौ सुख दैहौं।

अर्थात् इस चिड़थावल ग्राम में प्रेम भक्ति सम्पन्न एक ब्राहमण निवास करते हैं। वे अपनी दो कन्याओं को तुम्हें सहर्ष सौंप देंगे। तुम उनके साथ पाणिग्रहण कर लेना। वे तुम्हारे कार्य में सहायक सिद्ध होंगी। उस ब्राहमण के पास हमारा एक द्विभुज सुंदर स्वरूप है। वह स्वरूप वो तुमको प्रदान कर देंगे उसे ले कर तुम वृन्दावन आओ और उस सुंदर स्वरूप की विधिवत् सेवा करके सभी रसिक भक्तों को सुख प्रदान करो।

श्री राधाजी ने इस प्रकार की आज्ञा उस ब्राहमण को भी प्रदान की। आदेशानुसार कृष्णदासी और मनोहरदासी नामक उन दोनों कन्याओं के साथ चिड़थावल में श्री हरिवंश जी का पाणिग्रहण संस्कार हुआ। उन ब्राहमण ने अपने द्वारा सेवित श्री ठाकुर सेवा स्वरूप भी श्री हरिवंश जी को प्रदान कर दिया। इस प्रकार श्री ठाकुर जी के साथ सपरिवार श्री हित जी ने वृन्दावन की ओर प्रस्थान किया। चिड़थावल का यह घटना प्रसंग इष्ट के प्रति संपूर्ण समर्पण की प्रेरणा प्रदान करता है जहाँ अपनी किसी भी इच्छा या आग्रह का सर्वथा अभाव हो।

वि.स.1590 में श्री हरिवंश जी का वृन्दावन आगमन हुआ। उनके आगमन का माह एवं तिथि यद्यपि सुनिश्चित नहीं है। तथापि अन्य अनेक तथ्यों को सामने रखते हुए कार्तिक माह की शुक्ल त्रियोदशी ही अनुमानित होती है। इसलिए श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय में इस दिन श्री वृन्दावन प्राकट्य महोत्सव मनाने की प्राचीन परम्परा है।

वृन्दावन में श्री हरिवंश जी ने यमुना तट के एक ऊँचे स्थल पर परिकर सहित निवास किया। इस स्थल को इतिहास ग्रंथो में ऊँची ठौर कहा गया है। यहाँ सुंदर लता मंदिर में चिड़थावल से प्राप्त श्री ठाकुर जी को विराजमान करके वाम पार्श्व में श्री राधाजी की गादी सेवा स्थापित कर श्री हरिवंश जी उनकी लाड़पूर्वक सेवा परिचर्या करने लगे।

श्री वृन्दावन में बसने की इच्छा से आया जानकर स्थानीय बृजवासियों ने उनसे कहा कि आप धनुष पर तीर चढ़ा कर फेंकिये जितनी दूर आपका तीर गिरेगा उतनी भूमि हम आपको प्रदान कर देंगे। श्री हरिवंश जी के द्वारा फेंकने पर वह तीर पर्याप्त दूरी पर गिरा। वह तीर घाट कहलाया जिसे वर्तमान में चीर घाट कहा जाता है। इस घटना के कुछ वक्त पश्‍चात् श्री हित प्रभु ने तीर घाट के निकट श्री रासमंडल और श्री सेवाकुंज की स्थापना की।

वृन्दावन उस समय वृक्ष लताओं से आच्छादित प्रायः एक सघन वन था। वृन्दावन के आस पास निकट गाँवों में स्थानीय बृजवासी निवास करते थे। उस समय यहाँ लूटमार करने वाले मवासियों का बहुत आतंक था। इन मवासियों के सरदार थे नरवाहन। सम्पूर्ण ब्रज प्रदेश इनके आतंक के आधीन था और ये स्वयं राजा नरवाहन कहलाते थे।श्री हितजी के विषय मे सुनकर एक दिन यमुना तट के ऊँचे ठौर स्थल पर उनसे मिलने आये। प्रथम दर्शन में ही नरवाहन उन्हें समर्पित हो गये। श्री हरिवंश जी ने उन्हें लूटमार बंद करने की आज्ञा प्रदान की। नरवाहन के जीवन परिवर्तन से श्री वृन्दावन में अन्य अनेक संत आकर निर्भय होकर निवास करने लगे।

श्री हित प्रभु के आराध्य श्री राधावल्लभ लाल श्री राधा और वल्लभ (श्री कृष्ण) के एकात्म स्वरूप हैं। वृन्दावन आगमन के एक वर्ष पश्‍चात् श्री हरिवंश जी ने (वि. स.1591) में धूमधाम से उनका पाट महोत्सव किया तथा पांच आरती एवं सात भोग वाली सेवा पद्धति स्थापित की। श्री राधावल्लभ जी के वाम पार्श्‍व में विराजमान गादी सेवा की प्रथा श्री हरिवंश जी द्वारा प्रारम्भ हुई। श्री राधा ही उनकी गुरु हैं और प्राचीन भारतीय धर्म संस्कृति में गुरुगादी स्थापित करने का चिर प्रचलन है। गादी सेवा युगलोपासना के शास्त्रीय निर्देश एवं वैष्णव परम्परा का अनुसरण करते हुए श्री हितजी के द्वारा स्थापित किया गया एक भावनात्मक सेवा विधान है। इसी प्रकार ‘नाम’ सेवा भी उनकी एक मौलिक देन है। नाम नामी में अभेद के शास्त्रीय सिद्धांत को उन्होंने नाम सेवा के माध्यम से मूर्तिमान कर दिया।

वृन्दावन आने के पश्‍चात् श्री हरिवंश जी बृजभूमि से बाहर नहीं गये। धर्म प्रचार के लिये उन्होंने ‘वाद’ का भी आश्रय नहीं लिया। प्रेम की कोमल उपासना की स्थापना वाद सम्भव नहीं है। उनके द्वारा होने वाली धर्म प्रचार की पद्धति सर्वथा भिन्न प्रकार की थी। उनके कुछ शिष्य कभी-कभी यात्राओं पर चले जाते थे। उनसे श्री हरिवंश जी की मधुर रचनाओं को तथा प्रेम धर्म को सुनकर कई पिपासु जन वृन्दावन खिंचे चले आते थे। ऐसे ही एक प्रसंग में श्री हित जी के शिष्य नवलदास जी से एक पद सुनकर ओरछा के राजगुरु श्री हरिराम व्यास जी सब कुछ त्याग कर वृन्दावन आ गये तथा श्री हरिवंश जी का सिद्धांत ग्रहण कर रसोपासना में निमग्न हो गये। इसी प्रकार पूरन दास जी से हरिवंश जी द्वारा प्रगटित प्रेम धर्म का परिचय पाकर सुदूर ठठ्ठा (सिंधु प्रान्त) के राजा परमानन्द जी वृन्दावन आ गये। आगे चलकर इन्हीं परमानन्द जी से रसोपासना सुनकर प्रबोधानन्द जी श्री हित जी की शरण में आ गये। श्री हरिवंश महाप्रभु का प्रेम धर्म इसी रीति से प्रचारित हुआ।

इतिहास ग्रंथों में श्री हित प्रभु के लगभग 45 शिष्यों के नाम प्राप्त होते हैं। इनमें विट्ठलदास जी, नाहरमल जी आदि अनेक शिष्य देववन के भी हैं। उनके शिष्यों में श्री दामोदर दास (सेवक जी) का अनुपम स्थान है। वे गढ़ा (जबलपुर) निवासी थे। भ्रमण करते हुए वहाँ पहुची रसिक मंडली से श्री हरिवंश वाणी के कतिपय अंश सुनकर सेवक जी प्राणपन से श्री हितजी को समर्पित हो गये। श्री हित धर्म को जानने के लिये सेवकवाणी का अध्ययन अनिवार्य माना गया है।

श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी ने वृन्दावन में मानसरोवर, सेवाकुंज, रासमण्डल आदि अनेक दिव्यलीला स्थलियों को प्रगट किया। रासमण्डल पर उन्होंने कार्तिक वदी द्वितीया के दिन प्रगट रासलीलानुकरण का सर्वप्रथम प्रारम्भ किया। इस तिथि में श्री राधावल्लभ जी के मंदिर में द्वितीय शरद रासोत्सव मनाने की परमपरा है।

श्री हरिवंश जी ने अपने प्रेम रस सिद्धांत को वाणी रचनाओं में स्पष्ट किया है। संस्कृत में श्री राधासुधा निधि जी एवं यमुनाष्टक एवं ब्रजभाषा में श्रीहित चतुरासी जी, स्फुट वाणी तथा श्री मुख पत्री (द्वय) उनकी वाणी रचनाएं हैं। साहित्यकारों ने उन्हें ब्रजभाषा का जयदेव माना है।

श्री हरिवंश महाप्रभु के चार पुत्र व एक पुत्री थी। उनके तीन पुत्र व पुत्री का जन्म देववन में तथा चतुर्थ पुत्र श्री मोहनचंद्र जी का जन्म वि.स.1598 में वृन्दावन में हुआ। मोहन चंद्र जी की माता का नाम कृष्णदासी जी था।

नित्य विहार रसोपासना के द्वारा जगत का मंगल करने के लिए अवतीर्ण वंशी स्वरूप श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु ने (वि. स.1609) में श्री श्यामाश्याम के नित्य निकुंज महल में प्रवेश किया। श्री राधावल्लभीय सिद्धांत में उन्हें परात्पर प्रेम तत्व का मूर्त रूप माना जाता है। उनका प्रगट और अप्रगट होना लोक दृष्टि से कहा जाता है वस्तुतः वे नित्योदित पूर्णचन्द्र के समान सदा प्रकाशित हैं।

श्री हरिवंश जी के पश्‍चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचन्द्र गोस्वामी को श्री राधावल्लभ जी का सेवाधिकार प्राप्त हुआ। उनकी आज्ञा से अब्दुल रहीम खान खाना के दीवान सुन्दरदास जी ने श्री राधावल्लभ जी का भव्य मंदिर ई. स. 1584 में निर्माण कराया। इस मंदिर में श्रीजी लगभग 90 वर्षों तक विराजमान रहे। इसके पश्‍चात् औरंगजेब की मंदिरों को तोड़ने की नीति के चलते श्री राधावल्लभ जी कामवन (जि.भरतपुर) चले गये। वहाँ लगभग 110 वर्षों तक विराजमान रहे। मलेच्छों के उपद्रव के शांत होने के उपरांत पुनः वृन्दावन आ गये। वृन्दावन में लल्लूभाई गुजराती द्वारा नव निर्मित मंदिर में ई. स.1785 में श्रीजी विराजित हुए। वर्तमान में इसी मंदिर में हम उनका दर्शन लाभ प्राप्त करते हैं।

श्री वनचंद्र गोस्वामी का सेवाकाल लगभग 55 वर्षों तक रहा। उनके पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री सुन्दरवर जी को सेवाधिकार प्राप्त हुआ और सुन्दरवर जी के पश्चात उनके पुत्र श्री दामोदर जी को। दामोदर जी के दो पुत्र थे रासदास जी एवं विलासदास जी। श्री दामोदर जी के पश्चात अर्थात् ई. स. 1656 से उनके दोनों पुत्र तथा उनके वंशजों द्वारा श्री मंदिर की सेवा की जाने लगी। उन दोनो के वंशज ही रासवंश तथा विलासवंश कहलाये। तब ही से छह महीने रासवंश और छह महीने विलासवंश सेवा करते आ रहे हैं।

आगे चलकर सन.1953 में रासवंश के तत्कालीन सेवाधिकारी गोस्वामियों ने अपने सेवाकाल में मंदिर सेवा प्रबंधन को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने शिष्य-वैष्णवों की एक कमेटी नियुक्त कर और उसे अपने अधिकार एवं कर्तव्य सौंप दिए। तब से गुरुजनों के मार्गदर्शन में वैष्णव कमेटी रासवंश मंदिर के छः माह के प्रबंधन की सेवा कर रही है। निकुंज रसोपासना और शुद्ध प्रेम सिद्धान्त हेतु बसंत, होली, झूले, खिचड़ी, विवाह आदि उत्सवों से श्री राधावल्लभ लाल को लाड़ लड़ाया जाता है।

वैष्णव कमेटी द्वारा श्री राधावल्लभ मंदिर में गाये जाने वाले समाज-गायन का सम्पूर्ण पद साहित्य प्रकाशित है। श्री मंदिर की सेवा विवरण सम्बन्धी जानकारी तथा प्रकाशित साहित्य को कमेटी कार्यालय से प्राप्त किया जा सकता है।